एक अमृता थीं, जो साहिर की सिगरेट के टुकड़े सुलगाती और इमरोज की कमर पर साहिर का नाम लिखतीं, और एक इमरोज था, जिसने खुद को अमृता को सौंप दिया था…
”वो मेरी अधजली सिगरेट के टुकड़े जमा कर लेती थी, मेरे अलावा और भी बहुत थे उसके चाहने वाले थे, जितनी खूबसूरत और मीठी आवाज और अदाएं उससे कहीं खूबसूरत कला खुदा ने उसे अता की थी. ऐसा गजब का लेखन कि क्या कहूं. ऐसा लगता कि मानों वह कलम को बस हवा में घुमाती है और शब्द, भावनाएं, हर तरह की काव्य कलाएं उसकी धुन पर नाचती हुईं कागज पर हीरे-मोतियों की तरह खुद को पिरोने लगते और बस कुछ इतनी ही आसानी से वह गढ़ देती है कई कालजयी रचनाएं.”
”आज भी याद है मुझे, उसका जन्मदिन 31 अगस्त पर आता है. तब पंजाब और अब पाकिस्तान में पड़ने वाले गुजरांवाला से थी वो. उसे पंजाबी भाषा की पहली कवियत्री माना जाता है. साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला लेखिका रही भी वही है. उसे तकरीबन 100 किताबें लिखीं हैं, जिनमें से मुझे सबसे ज्यादा पसंद उसकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ है. पसंदीदा इसलिए क्योंकि इसी किताब में उसने हमारे रिश्ते का ऐसा जिक्र किया कि उस पर साहित्य की मुहर लग गई.”
सोचती हूं अगर साहिर (Sahir Ludhiyanvi) आज होते, तो खुद को उनकी जगह रखकर लिखी मेरी कल्पना के इन शब्दों को तोड़ कर एक खूबसूरत शेर या नज्म में बदल देते. मुझे लगता है अमृता (Amrita Pritam) अपने आप में प्रेम का महाकाव्य हैं. मां बचपन में चली गईं, पिता से अपेक्षित नेह नहीं मिला, 16 साल की उम्र में विवाह हुआ. ये विवाह अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुंच पाया और यहां अलाव को पनपने का मौका मिला. अमृता अपने पति प्रीतम सिंह (Pritam Singh) के साथ तो नहीं रह सकीं, लेकिन उनका नाम आज तक अमृता से जुड़ा है.
अमृता की मां की मौत के बाद उनके पिता को वैराग्य हुआ, लेकिन नन्हीं अमृता का मन प्रेम संसार की कल्पनाओं और स्नेह की तलाश में रहा. स्त्रि को जिस प्रेम की लालसा, तृष्णा और चाह होती है उसकी तृप्ति की पहली बूंद पिता के प्रेम से पूरी मिलती है, लेकिन अमृता के जीवन में पिता की मौजूदगी के बावजूद पिता के स्नेह की कमी रही. और इसी दौर में उन्होंने एक काल्पनिक प्रेमी “राजन” के साथ मन रमा लिया. राजन से शुरू हुई कहानी में प्रीतम, साहिर और इमरोज ने अपने अपने किरदार निभाए.
साहिर-अमृता की वो पहली मुलाकात
साहिर लुधियानवी से अमृता प्रीतम की पहली मुलाकात का ये किस्सा यूं ही नहीं सुनते. चलिए जरा फ्लेशबैक में चलते हैं…
Love Story of Amrita Pritam Sahir Ludhiyanvi: साल था 1944 का, भारत का नक्शा आज के नक्शे से जरा अलग था. जहन में जरा भारत के उस नक्शे को लाएं जब भारत-पाकिस्तान एक ही थे. लाहौर के पास एक शहर था प्रीत नगर. यहां एक बड़े मुशायरे का आयोजन किया गया था. अमृता की उम्र उस समय 25 साल के आसपास रही होगी. अमृता यहां पहुंची थीं और उन्हें इस बात का बिलकुल अंदाजा नहीं था कि कल्पनाओं में वें जिस ‘राजन’ से अक्सर मुलाकात करती थीं, उससे आप असल में मिलने वाली थीं. इस मुशायरे में आम सा दिखने वाला, लेकिन अच्छी कदकाठी का एक युवक भी आया था, जिसका नाम था साहिर लुधियाना. बेहद क्रांतिकारी मिजाज के साहिर लुधियानवी को अमृता का रूमानी मिजाज जैसे भा गया. वहीं, अमृता भी पहली ही मुलाकात में साहिर को दिल दे बैठी थीं. शादी के सालों बाद अमृता के जीवन में आए साहिर लुधियानवी. दोनों में प्रेम ऐसे खिला कि महक दूर तक फैली और आज भी दोनों के प्रेम के किस्सों की वो महक आपके दिल को प्रफुल्लित कर सकती है.
इस मुलाकात में कोई बात नहीं हुई. दोनों घंटों चुप बैठे रहे. जाते-जाते साहिर ने इसी खामोशी को कागज को एक छोटे टुकड़े में लिख कर एक नज्म की शक्ल में अमृता को पकड़ा दिया. ये वही नज्म थी जहां से शुरु हुआ कुछ कागजों, अखबारों, कलम और स्याही की आपस में बातचीत का सफर. दोनों ने एक दूसरे के लिए बहुत से नज्में, कविताएं लिखीं.
कोई नहीं जानता कि उस नज्म में क्या लिखा गया था. अमृता इस बात का पूरा ख्याल रखा कि इस नज्म पर उनका और साहिर का एकाधिकार रहे. उनसे इतर किसी तीसरी शख्सियत को अमृता ने उस सुनहरी नज्म को छूने तक नहीं दिया. साहिर की बची हुई सिगरेट तक संभाल कर रखने वाली अमृता अपने लिए उनकी पहली नज्म को भला साझा भी कैसे कर सकती थीं किसी से…
अमृता ने इस किस्से को रसीदी टिकट में कुछ यूं बयां किया है
“वो चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता. आधी पीने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता. जब वो जाता तो कमरे में उसकी पी हुई सिगरेटों की महक बची रहती. मैं उन सिगरेट के बटों को संभालकर रख लेती और अकेले में उन बटों को दोबारा सुलगाती. जब मैं उन्हें अपनी उंगलियों में पकड़ती तो मुझे लगता कि मैं साहिर के हाथों को छू रही हूं. इस तरह मुझे भी सिगरेट पीने की लत लग गई.”
खामोश नजरों से शुरू हुए प्रेम की जो चीख दोनों के दिलों से वह विरह में तब बदली जब बंटवारे के बाद अमृता अपने पति के साथ दिल्ली चली आईं. साहिर भी काम की तलाश में मुंबई की ओर कूंच किया. यहां फिल्मों में साहिर के गीत खूब पॉपुलर हुए. बदले हालात के बीच दोनों के बीच खतो-किताबत का सिलसिला चलता रहा. अमृता ने 1960 तक अपनी शादी को निभाया. लेकिन अब अमृता के लिए ये मुश्किल हो रहा था और उन्होंने फैसला लिया कि वे पति का घर छोड़कर दिल्ली में ही एक किराए के घर में अकेले रहेंगी.
उधर, फिल्मी दुनिया की चमक-दमक के बीच साहिर की जिंदगी में एक दूसरी महिला सुधा मल्होत्रा का आना हुआ. इसी के बाद साहिर और अमृता के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. साहिर के साथ साथ साहिर के खतों के इंतजार का समय भी धीरे-धीरे बढ़ने लगा. पहले साहिर का आना कम हुआ, फिर खतों की गिनती कम हुई और धीरे-धीरे सब कुछ शांत सा हो गया…
इसी शांति के दौर के बारे में अमृता ने अपनी आत्मकथा में कुछ इस तरह बताया है:
“एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं. बाहर पहरा होता है. भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता. मैं किले की दीवारों को उंगलियों से टटोलती रहती हूं पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता. सारा किला टटोल–टटोलकर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं. मेरी बांहों का इतना जोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है.”
और इस शांति के बाद…
इसी शांत संन्नते में अमृता के जीवन में एक बेहद ही धीमा सा कंपन हुआ, जिसने प्रेम के इस महाकाव्य में एक और चरित्र को बेहद खुबसूरती से गढ़ा. अकेलेपन के उस दौर में अमृता को मिले इमरोज. एक ऐसा इंसान जिसने अमृता से एक शांत वादा किया कि वह हर हालात में अमृता के साथ रहेगा. यह जानते हुए कि वह किसी और से प्रेम करती हैं. साये की तरह उसके साथ रहना और जीना स्वीकार किया. बिना किसी शिकायत के, बिना किसी मांग के और बिना किसी लालच के इमजोर ने अमृता को अपना आप दे दिया. ठीक वैसे जैसे कभी अमृता दे बैठी थीं खुद को साहिर के नाम. इमरोज ने अमृता पर हक नहीं जताया बल्कि बिना किसी शर्त उन्हें खुद पर पूरा हक दे दिया.
इमरोज अमृता के घर ही रहने लगे. एक ही छत के नीचे रहने वाले दो अजनबी प्रेमी. वे अमृता के लिए हर समय उपलब्ध होते. मुझे याद है इमरोज ने बताया था कि अक्सर अमृता स्कूटर पर उनके पीछे बैठी होती थीं, तो उनकी कमर पर उंगलियों से साहिर का नाम तराशती थीं… अमृता के प्रति इमरोज के प्रेम में वो आदर का भाव ही शायद सबसे मजबूत रहा होगा, जिसने कभी इस पर आपत्ति या जिरह नहीं किया.
और यूं अमृता प्रीतम के जीवन में आए इमरोज
अमृता को शायद इमरोज में ‘राजन’ मिला. लेकिन उन्हें दुख था कि राजन के मिलने में समय बहुत लगा. वे अक्सर इमरोज से शिकायत करतीं कि “तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते”. इमरोज एक बेहद मशहूर चित्रकार थे. दिल्ली में रहते हुए अमृता ने ऑल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) में काम किया. इसी दौरान एक एक किताब के कवर डिजाइन के सिलसिले में अमृता और इमरोज की मुलाकात हुई. इसी कवर पेज के डिजाइन के पूरे होते होते दोनों पूरी तरह एक दूसरे के हो चले थे.
अमृता इमरोज से पूरे 10 साल बड़ी थीं. पहले से विवाहिता थीं और साहिर के साथ अपने प्रेम को स्वीकारती थीं. ऐसे में इमरोज का प्रेम उनके प्रति कैसे हो सकता था… दोनों के रिश्ते की एक मशहूर घटना है. इमरोज के प्यार पर शक करते हुए अमृता ने इमरोज से कहा था
जाओ दुनिया घूमकर आओ. अगर पूरी दुनिया घूमकर भी तुम मुझे चाहोगे, तो मैं तुम्हारा इंतजार करती मिलूंगी’. जवाब में इमरोज ने अमृता के चारों और चक्कर लगाए और कहा कि लगा लिए मैंने दुनिया के चक्कर, मैं अब भी तुम्हें चाहता हूं.
और शायद इमरोज के आने के बाद अमृता को किसी और ‘राजन’ की तलाश न रही.
इमरोज से मेरी मुलाकात
मैं साल 2010 में इमरोज से मिली थी. अमृता के ही दिल्ली वाले घर में. अमृता को गए पूरा 5 साल हो चुके थे. इमरोज ने कभी ये नहीं कहा कि अमृता ऐसा करती थीं, अमृता ऐसी थीं. इन दो घंटों में जो मुझे इमरोज के साथ मिले थे वे अमृता के साथ जी रहे थे. पूरे साक्षात्कार में इमरोज ने अमृता को अपने बगल में ही बिठा रखा था. हमारी इस बातचीत के दौरान अमृता कभी उठकार इमरोज की किसी पेंटिंग पर जा बैठती तो कभी किसी पेंटिंग को आईना बना उसमें से मुस्कुराने लगतीं.
उस दिन इमरोज ने अमृता के उसे काल्पनिक प्रेमी ‘राजन’ को कहीं मेरे भीतर रोप दिया था शायद. लगा शायद हर स्त्रि का अपना एक ‘राजन’ है, जो उसके मन, दिल और दिमाग की भूमि पर रोपित हुआ.