महाभियोग से कैसे हटाए जाते हैं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज, अब तक कितने प्रयास हुए हैं सफल
विपक्षी दलों का गठबंधन इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है. जज शेखर कुमार यादव पर इलाहाबाद हाई कोर्ट परिसर में आयोजित विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में अल्पसंख्यकों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियां करने का आरोप है. यादव को 2019 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज नियुक्त किया गया था. जस्टिस यादव की टिप्पणियों पर अखबारों में आई खबरों पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्वत:संज्ञान लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से इस मामले में एक विस्तृत रिपोर्ट तलब की है.
विपक्ष की ओर से लाने जाने वाले इस प्रस्ताव पर जरूरी सांसदों के दस्तखत हो गए हैं. यह प्रस्ताव संबंधित अधिकारियों को सौंपा जा सकता है. इस तरह के प्रस्ताव को लाने के लिए 50 सांसदों के दस्तखत की जरूरत होती है.
संविधान के किस अनुच्छेद में है प्रावधान
सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के खिलाफ महाभियोग चलाने की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124(4) में निर्धारित की गई है. वहीं संविधान का अनुच्छेद 218 कहता है कि यही प्रावधान हाई कोर्ट के जज पर भी लागू होते हैं. अनुच्छेद 124(4) के मुताबिक किसी जज को संसद की ओर से निर्धारित प्रक्रिया के जरिए केवल प्रमाणित कदाचार और अक्षमता के आधार पर ही हटाया जा सकता है.न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए महाभियोग का आधार और प्रक्रिया का स्तर काफी उच्च रखा गया है.
यह प्रावधान कहता है कि सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि संसद के दोनों सदन बहस के बाद महाभियोग प्रस्ताव को उस सदन के कुल सदस्यों में से कम से कम दो तिहाई सदस्यों का समर्थन न हासिल हो. इसके बाद उस प्रस्ताव को राष्ट्रपति मंजूरी देते हैं. यह प्रस्ताव जिस सत्र में लाया जाता है, उसी सत्र में उसे पारित कराना जरूरी है. इसमें जज के कदाचार या उसकी अक्षमता का साबित करना होता है. इसका मतलब यह हुआ कि महाभियोग के प्रस्ताव का लोकसभा और राज्य सभा के सदस्यों में से 50 फीसदी से अधिक का समर्थन होना जरूरी है.
संसद में मतदान के जरिए प्रस्ताव के पारित हो जाने पर राष्ट्रपति जज को हटाने का आदेश जारी करते हैं.
क्या है न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968
किसी जज पर महाभियोग चलाने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 में निर्धारित है.इस अधिनियम की धारा 3 के तहत, महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए, इसे लोकसभा में कम से कम 100 सदस्यों और राज्य सभा में कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन होना जरूरी होता है. महाभियोग शुरू करने की सबसे पहली प्रक्रिया है, सदस्यों का दस्तखत लेकर समर्थन जुटाना.
जस्टिस शेखर कुमार यादव के मामले में लोकसभा में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के आगा सैयद रुहल्ला मेहंदी ने यह प्रक्रिया शुरू की है. वहीं राज्य सभा में निर्दलीय सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने यह प्रक्रिया शुरू की है. सिब्बल सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं.
जांच समिति में कौन कौन होता है
एक बार प्रस्ताव लाए जाने के बाद लोकसभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति का गठन करते हैं. इस समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश या कोई जज करता है. इसके अलावा इस समिति में किसी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शामिल किया जाता है.लोकसभा के अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति एक प्रतिष्ठित कानूनविद को इस समिति के तीसरे सदस्य के रूप में शामिल करते हैं. साल 2011 में जब कोलकाता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी तो मशहूर वकील फली नरीमन को प्रतिष्ठित कानूनविद के रूप में समिति में शामिल किया गया था.
लोकसभा के अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति की ओर से नियुक्ति समिति के पास जांच की प्रक्रिया तय करने, सबूत मांगने और गवाहों की गवाही लेने का अधिकार होता है.यह समिति ही आरोप तय करती है. अगर यह आरोप मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर लगाए गए हैं तो समिति आरोपी जज का मेडिकल टेस्ट भी करा सकती है. कुछ मामले ऐसे भी आए हैं जिनमें समिति ने आरोपी जज के खिलाफ कार्यवाही संचालित करने के लिए एक वकील को नियुक्त किया है. साल 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वीरास्वामी रामास्वामी के खिलाफ लाए गए महाभियोग में जांच समिति ने वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह को अपना वकील नियुक्त किया था. जज वीरास्वामी रामास्वामी पर पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश रहते हुए अनियमितता का आरोप लगाया गया था. समिति की जांच में 14 में से 11 आरोप सही साबित हुए थे. इस मामले में संसद की संयुक्त बैठक में कपिल सिब्बल ने जस्टिस रामास्वामी के वकील के रूप में उनका बचाव किया था. यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया था. इसके एक साल बाद जस्टिस रामास्वामी सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में रिटायर हुए थे. बाद में वो राजनीति में शामिल हो गए थे.
जज को हटाने के आदेश पर दस्तखत कौन करता है
यह जांच समिति अपनी जांच पूरी करने के बाद लोकसभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति को अपनी रिपोर्ट सौंपती है. लोकसभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति उस रिपोर्ट को जल्द से जल्द अपने-अपने सदन के पटल पर रखते हैं. अगर जांच रिपोर्ट से यह पता चलता है कि जज पर लगाए कदाचार या अक्षमता के आरोप सही नहीं हैं तो मामला वहीं खत्म हो जाता है. लेकिन अगर जांच रिपोर्ट में आरोप सही पाए जाते हैं तो संबंधित सदन जांच समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करता है. इसके बाद दोनों सदनों की ओर से राष्ट्रपति से आरोपी जज को हटाने की सिफारिश की जाती है.
देश के इतिहास में जजों के हटाने के अब तक छह प्रयास हुए है. लेकिन इसमें से कोई भी प्रयास सफल नहीं हुआ है. केवल जस्टिस रामास्वामी और जस्टिस सेन के मामले में ही जांच समिति ने अपनी जांच में आरोपों को सही पाया था. छह प्रयासों में से पांच में वित्तिय अनियमितता के आरोप लगाए गए थे. वहीं केवल एक में ही यौन कदाचार के आरोप लगाए गए थे.
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