हरियाणा में इनेलो-बसपा का गठबंधन कर सकता है कांग्रेस-बीजेपी को परेशान,जानें क्या हैं समीकरण
उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी बसपा हरियाणा का विधानसभा चुनाव इनेलो के साथ मिलकर लड़ रही है. हरियाणा की 90 सदस्यों वाली विधानसभा में इनेलो 53 और बसपा 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. हरियाणा में दलित वोटों की संख्या और मायावती की बदली रणनीति ने हरियाणा में बीजेपी और कांग्रेस दोनों की नींद हराम कर दी है. बसपा नेता आकाश आनंद ने बुधवार से अपने चुनाव अभियान का शुभारंभ किया. पार्टी प्रमुख मायावती 25 सितंबर से रैलियां करेंगी.
हरियाणा का दलित वोट बैंक
दलित वोटों पर हर पार्टी अपना-अपना दावा करती रहती है. लेकिन माना जाता है कि दलितों के एक बड़े तबके का रूझान बसपा की ओर है. यही वजह है कि बहुत सी पार्टियां उनसे गठबंधन के लिए लालायित रहती हैं. हरियाणा में दलित वोट बैंक 20 फीसदी के आसपास है.यही वोट बैंक बसपा प्रमुख मायावती को हरियाणा में भी महत्वपूर्ण बना देता है.इसी को ध्यान में रखते हुए ओमप्रकाश चौटाला की इनेलो ने बसपा से हाथ मिलाया है.बसपा और इनलो ने तीसरी बार गठबंधन किया है.दोनों दल सबसे पहले 1996 के लोकसभा चुनाव के दौरान साथ आए थे. इस चुनाव में बसपा ने एक और इनेलो ने चार लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी.इसके बाद 2018 का विधानसभा चुनाव इनेलो और बसपा ने मिलकर लड़ा था.
बसपा ने 2019 के विधानसभा चुनाव में बिना किसी गठबंधन के 90 में से 87 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इनमें से 82 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई थी.उसे 4.14 फीसदी वोट मिले थे.बसपा ने 2014 के चुनाव में 87 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उसे एक सीट पर जीत मिली थी और 81 पर उसकी जमानत जब्त हो गई थी. उस चुनाव में बसपा को कुल 4.37 फीसदी वोट मिले थे.बसपा ने हरियाणा में सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 के लोकसभा चुनाव में किया था. यह चुनाव बसपा ने बिना किसी गठबंधन के लड़ा था. उसने सभी 10 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उस चुनाव में बसपा को 15.75 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली थी.
हरियाणा में दलित आबादी कितनी है
साल 2011 में जनगणना में हरियाणा में दलित आबादी 20.2 फीसदी है.यह वोट बैंक ही मायावती और बसपा को हरियाणा में दलित वोटों का मजबूत दावेदार बनाता है.हरियाणा विधानसभा में 17 सीटें आरक्षित हैं. इनके अलावा राज्य की 35 सीटों पर दलितों का प्रभाव माना जाता है.बीएसपी की नजर इन्हीं 52 सीटों पर है. इन्हीं वोटों पर दावेदारी करते हुए उत्तर प्रदेश के नगीना से सांसद चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी (एएसपी) ने जननायक जनता पार्टी (जजपा) से हाथ मिलाया है.
साल 2019 के चुनाव में इन 52 में से 21 सीटें बीजेपी ने जीती थीं. इसके अलावा कांग्रेस के हिस्से में 15 और जेजेपी की हिस्से आठ सीटें आई थीं. लेकिन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के गठबंधन को जिस तरह से सफलता मिली है, उससे लगता है कि दलितों का बड़ा वोट उनकी तरफ गया है.लेकिन विधानसभा चुनाव में बसपा-इनेलो और जेजेपी-एएसपी गठबंधन से इसमें सेंध लगने की आशंका है.अगर ऐसा होता है तो इससे कांग्रेस के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. हालांकि इस साल हुआ लोकसभा चुनाव बसपा और इनेलो ने अलग-अलग लड़ा था.लेकिन किसी को भी कोई सफलता नहीं मिली थी.चुनाव आयोग के मुताबिक बसपा को 1.28 फीसद और इनेलो को 1.74 फीसद वोट मिले थे.
कांग्रेस नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा के समर्थकों की ओर से वरिष्ठ नेता कुमारी शैलजा पर की गई टिप्पणी पर बसपा नेता हमलावर हैं. बसपा नेता आकाश आनंद ने तो उन्हें बसपा में आने तक का न्यौता तक दे डाला है. वो अपनी सभाओं में इसे मुद्दा बना रहे हैं. इसका भी प्रतिकूल असर कांग्रेस पर पड़ सकता है.
बसपा और एएसपी के चुनाव लड़ने का असर क्या होगा
साल 2019 के विधानसभा चुनाव में दलितों के प्रभाव वाली 21 सीटें जीतने वाली बीजेपी के लिए भी ये गठबंधन मुश्किलें पैदा कर सकता है. दरअसल लोकसभा चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस और इंडिया गठबंधन ने प्रदर्शन किया है. उससे लगता है कि दलितों में बीजेपी का जनाधार कम हुआ है. हरियाणा में भी बीजेपी अपनी 10 में से केवल 5 सीटें ही बचा पाई है.इसके बाद से ही बीजेपी जाति जनगणना और आरक्षण को लेकर राहुल गांधी पर हमलावर है. अगर दलितों का लोकसभा चुनाव वाला रुख विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा तो बीजेपी को घाटा उठाना पड़ सकता है.
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